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 पिता जी की जय हो………….

अक्सर हम परसंस्कृति के विचारधाराओं के प्रति अपने नजरिये जुदा जुदा रखते है। 1991 के बाद देश ने दीगर देशों के लिए व्यवसाय के द्वार खोले, गूगल युग की शुरुवात हुई तो बहुत सी अच्छी बातों से भी हम वाकिफ हुए उनमें से एक रिश्ते जो समाज मे अनिवार्य है अगर उनके लिए कोई दिन विशेष रख कर रिश्तों को विशेष बनाने की परम्परा भी है। इसमे कोई बुराई नही है। आम लोगो मे ईश्वर के प्रति भी दिन विशेष है।जैसे हिंदुओ में  दुर्गा अष्टमी,राम नवमी,हनुमान जयंती, जन्माष्टमी ,आदि आदि, वैसे ही मुश्लिमो में शुक्रवार, रमजान, ईद, क्रिस्टियन में  गुड  फ्राई ड़े, क्रिसमस, सिक्खों में गुरुनानक जयंती  का दिन विशेष है ही। इनसे परे परिवार में जो बुनियादी रिश्ते है उनके लिए किसी दिन को विशेष बना देना, मेरे  विचार से अच्छी बात है। दिन विशेष से बाकी दिन अविशेष नहीं हो जाते है जैसा की नकारात्मक सोच वाले टिप्पणी करते है। किसी भी धर्म के किसी भी ईश्वर के दिन विशेष के बाद भी हमारी आस्था कमजोर नही होती लेकिन दिन विशेष में अन्य दिनों की तुलना भव्य हो जाती है।

पिता के प्रति विशेष सम्मान देने के लिए 18 जून 1910 को अमेरिका में फादर्स डे की शुरुवात हुई थी। हमारे देश मे ये तीन दशक पुरानी परंपरा है। आमतौर पर माँ को सबसे अधिक सम्मान मिलता है। जन्म से लेकर ,देख रेख, पालन पोषण से लेकर भावनात्मक संबंध को लेकर माँ ही केंद्र बिंदु होती है। पिता, ज्यादातर आर्थिक संबल का आधार होता है। पुरुष होने के कारण भावनात्मक रूप से सूखे आंखों वाला व्यक्ति माना जाता है। संवेदना के मामले में कठोर। यही कारण होता है कि अव्यक्त भावनाओं के चलते परिवार का केंद्र बिंदु नही होता। 

धार्मिक संस्कारो में भी पिता की भूमिका नगण्य होती है।  जिंदगी भर घर को ढोने की जिम्मेदारी बहुत कम पिता को घरेलू बना पाती है। संवेदनात्मक रूप से न जुड़ पाने की वजह से पिता ज्यादातर एटीएम ज्यादा हो जाते है। ये भी मुगालता पिता में होना कि आर्थिक जिम्मेदारी का निर्वहन कर वह  सबसे सफल है ,कमजोर कड़ी है। दरअसल जिस युग मे मेरे उम्र के पिता ने अपने पिता  को देखा है, वे संतानों से बहुत कम बात करने वाले, आदेशात्मक घोषणा करने वाले औऱ घर के बजाय सांसारिक बातों में उलझे रहने वाले रहे है। ज्यादा संतानों के चलते नाम और किस क़क्षा में पढ़ने की जानकारी भी न होना सामान्य बात हुआ करती थी। कम संतानों के कारण हम थोड़ा सुधरे। अब माइक्रो परिवार है , माँ भी कामकाजी है तो अच्छा ये हुआ कि आज का पिता ज्यादा संवेदनशील है।

 आज पिता पर अच्छे  अच्छे विचार सुनने मिलेंगे, बढ़िया पोस्ट भी आएंगे लेकिन ये जरूर है कि पिता बनना बहुत ही कठिन है और उससे कठिन है भावनात्मक पिता होना। अधिकांश पिता इस गुण से वंचित है।, मैं भी ………….

स्तंभकार-संजयदुबे

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