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पढ़ाई में भी व्यवसाय……………..

 व्यवसाय जगत  में एक शब्द  बहुत प्रचलन में रहता है -निवेश, इसे आंग्ल भाषा में investment कहा जाता है। इस शब्द में जोखिम का भाव होता है याने नफा और नुकसान दोनो की संभावना रहती है। व्यापार में जोखिम पहले उठाने की अनिवार्यता रहती है और दूरगामी लाभ की दृष्टि से वर्तमान में नुकसान उठाना भी  बेहतर माना जाता है।  व्यापार जगत में नफा और नुकसान आर्थिक ही होता है।

देश में शिक्षा भी व्यवसाय का रूप धारण कर चुका है। अभिभावक अपनी संतानों के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए इस क्षेत्र में दांव लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। आलीशान इन्फ्रास्ट्राकर याने भव्य बिल्डिंग, कैंपस, सहित स्कूल का ब्रांड इस मामले में बहुत काम की होती है। फीस का तगड़ा होना अगला मापदंड होता है।” ऊंचे लोग ऊंची पसंद”के सिद्धांत में अभिभावक जोखिम लेता है ।अधिकांश अभिभावकों का मानना है कि वातावरण बढ़िया हो तो उनका बच्चा शिक्षित हो ही जायेगा। इसके चलते ब्रांडेड स्कूलों और कोचिंग संस्थानो का धंधा (व्यवसाय का विद्रूप नाम) शानदार ढंग से चल रहा है,चलेगा।

 अभिभावकों के सतर्कता के चलते उनके बच्चे शिक्षा के प्रति जागरूक हो जाए अनिवार्य नहीं है। मस्तिष्क  की भी अपनी ग्रहण शक्ति होती है। घोड़े को  कुआं तक ले जाया सकता है लेकिन पानी  पीने पर मजबूर नहीं किया जा सकता है। जो विद्यार्थी सक्षम नहीं होते है उन्हे सक्षम बनाने वाले अभिभावक होते है और ऐसी संस्थाएं भी होती है जो आर्थिक आधार पर सक्षम बनाने का ठेका लेते है।  इनका पहला पड़ाव स्कूल ही होता है। किसी स्कूल को बेहतर माने जाने का आधार उस स्कूल के छात्रों  का ग्रेडिंग या प्राप्त अंक का प्रतिशत होता है। निजी शैक्षणिक संस्थानों में  ये काम बड़े आसानी से होता है। दसवीं और बारहवीं बोर्ड में असली  परीक्षा होती है  जिसमे असली परिणाम का पता चलता है।

 हमारे देश में बारहवीं के बाद भविष्य के कार्य क्षेत्र के निर्धारण के लिए प्रवेश परीक्षाओं  का आयाम खुलता है। शासकीय अर्ध शासकीय और अन्य सेवाओं में प्रवेश के लिए स्नातक   होना मापदंड है, उसकी चर्चा बाद में करेंगे यद्यपि यहाँ पर भी समस्या समान ही है। देश भर में दो शिक्षा क्षेत्र का ग्लैमर अभिभावकों और विद्यार्थियों में कूट कूट कर भरा हुआ है। पहला इंजीनियरिंग (चार साल में  जय हो)  है और दूसरा  मेडिकल( निखरने के लिए आठ से दस साल) है।

  इंजीनियरिंग के लिए केवल आई आई टी और एन आई टी का ही जलवा है। इनके बाद सरकारी इंजीनियरिंग कॉलेज की महत्ता है।निजी क्षेत्र में ब्रांडिंग है। इन्हे उन अभिभावकों द्वारा सार्थक माना जाता है  जिनके बच्चे प्रवेश परीक्षा  में सफल नहीं हो पाते है। ऐसा भी नहीं है कि निजी संस्थान उत्कृष्ट नहीं है लेकिन यहां काआर्थिक बोझ  ये प्रमाणित जरूर करता है कि निवेश की तुलना में लाभ कितना है।

ऐसा ही हाल मेडिकल का भी है। सरकारी मेडिकल कालेज में पढ़ने वाले निःसंदेह उत्कृष्ट विद्यार्थी माने जाते है। निजी क्षेत्र के मेडिकल कालेज के बारे में ये जाहिर है कि इनकी फीस आधे करोड़ के आस पास होती है। दोनो हो क्षेत्र में चयन की संख्या निर्धारित है। इस कारण गला काट प्रतिस्पर्धा है। इसमें सफलता दिलाने वाले कोटा जैसे शहर है साथ ही लगभग हर बड़े शहर में ब्रांच भी है। हवाई जहाज से पढ़ाने वाले गुरु है। ऑन लाइन भी पढ़ाई है।

 इन सबसे परे एक समांतर सफलता दिलाने वाले “साल्वर गैंग “भी है जिनके पास मुन्ना भाई और मुन्नी दीदी को बाई पास से सफलता दिलाने का दायित्व है। प्रतियोगी परीक्षाओं के शुरुवात के साथ ही ये साल्वर गैंग सक्रिय हो चुके है। कहा जाता है कि  जहा बृहस्पति है वहां शुक्राचार्य भी है। ये लोग परीक्षा के प्रश्न चयनित करने वालो से लेकर, जिस प्रिंटिंग प्रेस में छपाई होगी , जिस ट्रांसपोर्ट के माध्यम से लाया ले जाया जाएगा,  जिस थाने अथवा स्कूल के प्रिसिपल के आधिपत्य में रखा जायेगा। परीक्षा केंद्र का चयन, आदि जितने भी संभावित स्थान होते है , रेकी करते है। महंगे प्रलोभन देने में इनकी कोई सानी नहीं है। इसके साथ साथ ये उन सफल विद्यार्थियों को भी लालच दे कर तैयार कर लेते है जो किसी व्यवसाई  अभिभावक के बच्चे की जगह   बैठकर परीक्षा देते गई। ये काम कठिन होते जा रहा है तब विकल्प मे प्रवेश  परीक्षा के पेपर के प्रश्नों का जुगाड ही शेष बचता है। देश के हिंदी भाषी राज्यों में ये बीमारी फैल चुकी है। बिहार तो विश्व विख्यात है इस मामले में। देश में प्रतियोगी परीक्षाओं का जो हाल अभी हुआ है वो शर्मनाक है।

शिक्षा के अलावा सरकारी नौकरी के प्रवेश परीक्षाओं में भी स्वयं सरकार ही शामिल होकर धंधा करने में लग गई है।राजस्थान और छत्तीसगढ़ के आयोग सीबीआई के दायरे में आ गए है लेकिन इस धंधे में असक्षम लोग  जो पहले सफल होकर एक सक्षम  विद्यार्थी को वंचित कर  आज सुख भोग रहे है वे बेफिक्र है। सरकार कड़े कानून बना सकती है लेकिन इस प्रकार के धंधे चलते रहे तो अयोग्य लोग जिस पूल को बनाएंगे उसमे कभी लोग मरेंगे और  चिकित्सा करेंगे तो भागवान ही मालिक होगा।

स्तंभकार -संजय दुबे

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