रेखा पर क्यों नहीं लिखें !…….
कल रात एक शुभचिंतक का फोन आया। स्वर में तल्खी था।” अमिताभ बच्चन पर कलम चला दिए लेकिन लेडी अमिताभ पर क्यों नहीं चलाए,10अक्टूबर को रेखा का जन्मदिन था” मुझे स्वीकारना पड़ा कि भूल हो गई।
किसी के जन्मदिन बीत जाने के बाद व्यक्ति की अहमियत कम नहीं हो जाती है।रेखा, एक लकीर है जो शुरुवाती दौर में मोटी,भद्दी, और सांवली से भी गहरे रंग की थी, अभिनयविहीन, दक्षिण की होने के नाते हिंदी बंटाधार। वक्त के साथ रेखा महीन हुई,छरहरी हुई और कृत्रिम रंग,परिधान और आभूषणों के साथ साथ अभिनय की बारीकी समझी ,हिंदी सीखी। इस प्रक्रिया में सात साल लग गए “सावन भादो” से लेकर “घर” की ये दूरी तय करते करते। इस मध्यांतर में रेखा के पास तब के आम भारतीय पुरुषो के लिए पसंदगी का मांसल सौंदर्य भर था जिसका रेखा ने जम कर उपयोग किया।
गुलजार की फिल्म”घर” रेखा के जीवन में ट्रांसफॉर्मेशन का पहला पड़ाव बना जहां से रेखा ने अपने को बढ़ाना शुरू किया।अंग प्रदर्शन से परहेज किया और संवेदनशील अभिनय की पंक्तियां बनाना शुरू की। अमिताभ बच्चन का साथ उन्हें कही न कही संबल प्रदान किया। आगे की कहानी यही रही कि वे सिलसिला, उमरावजान, खून भरी मांग,कलयुग, उत्सव,अगर तुम न होते,जैसी फिल्मों में नए रूप में दिखी।
ऐसा माना जाता है कि एक उम्र के 35वे पड़ाव तक नायिका आम दर्शकों की पसंदगी से बाहर होने लगती है तब चरित्र भूमिका का विकल्प ही शेष बचता है। इसके अलावा नई नायिकाओं के विकल्प से निर्माता निर्देशक ताजगी परोसते हैं ।रेखा भी इसी दौर में आई लेकिन उन्होंने नई रेखा बनाई जिसकी मिसाले दी जाती है।
साधारण से असाधारण कैसे बने? इस बात को सीखना हो तो रेखा उदाहरण है।उम्र के69वें पड़ाव में अब वे कृत्रिम जीवन जी रही है ।झुर्रियां जो इस उम्र में पसरती है उनकी सर्जरी से वे भले ही जवान दिखने की कोशिश में है लेकिन उम्र देवानंद को नहीं छोड़ी तो बाकी सब बेमानी है।दर्शक रेखा को याद रखेंगे ये गारंटी है।
स्तंभकार- संजय दुबे