कानून व्यवस्था

अति अतीक के बहाने………………..

पिछले कुछ समय से एक परिवार राष्ट्रीय स्तर के  इलेक्ट्रॉनिक औऱ प्रिंट मीडिया सहित सोशल मीडिया में  सुर्खियों में है। ये परिवार है अतीक अहमद का। उत्तर प्रदेश के  पुराने  इलाहाबाद में  राजनैतिक  संरक्षण के बदौलत एक साधारण सा गुंडा असाधारण राजनीतिज्ञ बन गया था। 5 बार विधानसभा सदस्य औऱ एक बार पंडित जवाहर लाल नेहरू के संसदीय क्षेत्र फूलपुर से संसद सदस्य बनना साधारण कार्य नहीं था। आखिरकार जनता ने ही इसे चुना था। क्या ये निर्वाचन  जनमत था या गुंडागर्दी का चर्मोत्कर्ष था। ये तो पुराने वक़्त की बात है। इस जनमत का प्रतिफल क्या मिला था अतीक अहमद को ? 11 सौ करोड़ रुपये की अवैध संपत्ति। 

ये अर्जन साधारण व्यक्ति के लिए संभव है? जाहिर है कि उत्तर प्रदेश  की पुरानी सरकारों ने अतीक अहमद को फलने फूलने में जबरदस्त मदद  करते रही है। अक्सर गुंडे राजनीति का सहारा लेकर पनपते है  क्योंकि  उनको सबसे ज्यादा  पुलिस से संरक्षण की आवश्यकता होती है। ये कार्य व्यवस्थापिका के लोग बेहतर ढंग से करते है।

 मुम्बई में अंडरवर्ल्ड से जुड़ी बहुत सी फिल्में बनती है जिनमे किसी राज्य का मुख्यमंत्री, गृह मंत्री,  सांसद, विधायक, पुलिस के बड़े अधिकारी के मिलजुल कर साजिश रचने, आम आदमी को परेशान करने के अलावा अवैध रूप से जमीन हथियाने, अवैध हथियार रखने के साथ साथ खुले आम गुंडागर्दी के दृश्य दिखाए जाते है। “गंगाजल” ऐसी ही फिल्म थी । कमोबेश अतीक अहमद का अंत भी गंगाजल के  क्लाइमेक्स की तरह ही हुआ।” सिंघम” भी ऐसी ही फिल्म थी जिसमे पुलिस के जाबाज़ी के लिए ताली पीटा गया था

 सत्ता परिवर्तन से समीकरण बनते बिगड़ते है। उत्तर प्रदेश में भी ऐसा ही हुआ।  कानून व्यवस्था को सुधारने की दशा में काफी काम हुआ है। इसमे असामाजिक तत्वों के अवैध निर्माण पर बुलडोजर चलाना, इनकाउंटर करना मुख्य है।  हमारे देश मे इनकाउंटर करने का ठेका अक्सर गुंडे , लिया करते है। सुपारी लेने जैसा शब्द प्रचलन में है । सरकार ने ये काम पुलिस को लेने की आज़ादी भी दी औऱ मजबूर भी किया । मजबूर इसलिए क्योकि पुलिस को उसी प्रकार कार्य करना होता है जैसा सत्ता चाहती है। यही पुलिस पुरानी सरकारों में रही थी लेकिन अभी जो कार्यप्रणाली देखने को मिल रही है वैसा पहले देखने को नही मिलता था। अब  पुलिस को अपने होने का अहसास दिलाना पड़ रहा है। ये संवैधानिक कर्तव्य है जिसके चलते उन्हें अपने अधिकारों का उपयोग करना भी पड़ रहा है।

इनकाउंटर, के बारे में ये आवश्यक पहल है या नहीं ये बहस का मुद्दा है । उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था सबसे बड़ी समस्या  रही है। इसके अनेक कारण है जिसमे सबसे बड़ा कारण राजनेतिक संरक्षण है।  कुछ समय पहले झांसी (उत्तर प्रदेश) जाना हुआ था। ऑटो में सवार होकर गंतव्य जाने का रास्ता जाना पहचाना था। जिस रास्ते पर ऑटो चल रहा था वह नया दिखा। मैंने ऑटो चालक से पूछा तो उसने बताया कि रास्ता वही है लेकिन अवैध कब्जे से 23 एकड़ जमीन  को मुक्त कर दिया गया है । अवैध कब्जा किसका था? पूछने पर बताया कि पुराने दलों के लोगो का था। वो सबसे रंगदारी लेते थे, स्वयं आटो चालक भी रंगदारी दिया करता था। ऑटोचालक ने ये भी बताया था कि पुलिस वाले शिकायत दर्ज करने से पहले फ़ोन लगाकर पूछा करते थे। कहने का मतलब यही है कि पुलिस कर्मी का चरित्र बदला है तो व्यवस्थापिका के कारण।

अतीक अहमद का परिवार गुंडागर्दी को  वंशानुगत धंधा बना लिया था । क्या पति ,क्या पत्नी, क्या बेटे , क्या बहु, क्या चाचा, क्या भाई। सभी राजनैतिक संरक्षण का मजा लूट रहे थे।  एनकाउंटर के बाद शेर- ढेर, मिट्टी में मिला दिये, जैसे  गर्वोक्ति के साथ  समाचार सुर्खियों में है। अपराधियों की सांस कम से कम नीचे चल रही है। एक प्रश्न औऱ उठ रहा है कि एनकाउंटर सही है या गलत?   कानून पहले यह बात जरुरी है कि सौ  अपराधी  बच जाए लेकिन निर्दोष मारा नहीं जाना चाहिए लेकिन सरे आम सीसीटीवी में एक निर्दोष व्यक्ति को मौत के घाट उतार देने वाले के साथ क्या सलूक किया जाना चाहिए?   

इस देश मे लोगो को आत्मरक्षा का अधिकार भारतीय  दंड सहिंता 1860 की धारा 96 से 106 में उल्लिखित है लेकिन इसका उपयोग डरपोक या भीरु व्यक्ति नही कर पाता है । इसी का फायदा गुंडे उठाते है । अतीक औऱ उसका पूरा परिवार  गुंडागर्दी का पर्याय बन चुका था। अब जो हश्र हो रहा है वह व्यवस्थापिका, कार्यपालिका के लिए संदेश है।

प्रहार फिल्म में एक अच्छी बात कही गयी है कि एक मोहल्ले में गुंडे 10-20 होते है लेकिन 10 हज़ार की आबादी पर हावी होते है। फर्क संगठित औऱ असंगठित होने की है। पहला पत्थर कौन मारे की कहावत के चलते अतीक जैसे लोग हर मोहल्ले, बस्ती, नगर, शहर में है। नेता, पुलिस, जनता सब जानती है । जब गवाही ही न मिले, तो न्यायपालिका को निर्णय आखिर   भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत सुनाना पड़ता है। कुछ न्याय न्यायालय के बाहर भी होते है जो कतई अप्रिय लग सकते है लेकिन जरूरी भी होते है।

स्तंभकार -संजयदुबे

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