कानून व्यवस्था

भ्रष्ट्राचार और जांच एजेंसी!

सरकार में जन प्रतिनिधि और सरकारी अधिकारी, कानून बनाने और पालन करवाने के लिए आम जनता के सामने जिम्मेदार तंत्र है। आम जनता(इनमें वे लोग नहीं है जो कर चोरी कर अपना काम निकलवाने के लिए रिश्वत देने में देरी नहीं करते) के कल्याण और सरकारी कानून के पालन करवाने जनप्रतिनिधियों के बारे में आम जनता की विशिष्ठ और सामान्य धारणा है कि दोनो वर्ग  उन्हीं कामों में हाथ डालते है जिनमें पैसे मिलने की गुंजाइश होती है। ये दिखता भी है।

जन प्रतिनिधि चाहे ग्राम पंचायत का सरपंच हो या विधायक या सांसद अथवा किसी निगम मंडल का अध्यक्ष, पांच साल में पता नहीं किस धंधे में हाथ डालता है कि इधर से आलू डालता है उधर से सोना निकल जाता है। दूसरी तरफ सरकारी कर्मचारी और अधिकारी है। चतुर्थ श्रेणीकर्मचारी से लेकर प्रथम श्रेणी के अधिकारी है। चपरासी से लेकर विभाग के सचिव, संचालक, कलेक्टर और मुख्य कार्य पालन अधिकारी सहित विभाग स्तर के जिला अधिकारी  और उनके मातहत अधिकारी कर्मचारी तक जाल फैला हुआ है। इनके बारे में भी आम जनता में धारणा अच्छी नहीं है।

धारणा अच्छे न होने के दो कारण है।पहला, खुद के वहां न होने का, जिसके चलते खुद  स्वादिष्ट मलाई खा नहीं खा पा रहा है। दूसरा कि सामने वाला स्वादिष्ट मलाई खा रहा है, जो मुंह में दिख रहा है। केंद्र की हो, दूसरे देशों की तरह अपने  देश में भी जन कल्याण की भावना को प्रबल करने के लिए जन प्रतिनिधि और सरकारी अधिकारी कर्मचारी ईमानदारी से काम करे ,भ्रष्ट्राचार न करे , इसके लिए कुछ जांच एजेंसी का निर्माण संविधान के अनुसार किया गया है।

 केंद्र स्तर पर सीबीआई, ईडी, इनकम टैक्स तीन ऐसे विभाग है जिनके द्वारा उन जन प्रतिनिधि और केंद्रीय सरकारी अधिकारी की जांच करती है जिनके विरुद्ध  भ्रष्ट्राचार की उन्हें प्रमाणित शिकायत मिलती है या स्वतः संज्ञान लेकर जांच करते है।  सत्ता में जो भी पार्टी विपक्ष रहती है उसका आरोप रहता है कि केंद्रीय जांच एजेंसी सत्ता पक्ष के तोता हुआ करते है। पिछले ग्यारह सालों में तीनों केंद्रीय जांच एजेंसियों ने  खुद को सुर्खियों में बना रखा तो है। चाहे कैसे भी रूप में हो। 

 2014 में पहली बार देश में किसी गैर कांग्रेसी पारी का पूर्ण बहुमत की सरकार का  गठन हुआ। नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री बने। उनकी सरकार का सत्ता में आने का कारण देश में व्याप्त भ्रष्ट्राचार भी एक कारण था। प्रधान मंत्री ने चेतावनी दी थी कि हर स्तर पर भ्रष्ट्राचार को रोकने का प्रयास किया जाएगा। इसमें कोई दो मत नहीं है कि बीते ग्यारह सालों में बड़े स्तर के जन प्रतिनिधि और सरकारी अधिकारी बड़े जांच एजेंसियों के घेरे में आए है। आम जनता के मन में ये रहता था कि छोटी मछलियों को पकड़ कर बड़े मछलीबाज  बनते है उससे परे मुख्यमंत्री, मंत्री, आईएएस, आईपीएस अधिकारियों सहित सचिव, संचालक, कलेक्टर,मुख्य कार्य पालन अधिकारी, सहित राज्य स्तर के बड़े अधिकारी रगड़े गए है।

इस प्रकार की कार्यवाही से आम जनता में ये विश्वास तो हुआ कि केंद्रीय जांच एजेंसियों ने बेहतर काम किया है। विपक्ष ने आरोप भी लगाया कि केंद्र की सरकार भ्रष्ट्राचार को बढ़ाने के  लिए उन राज्यों में आंखे बंद किए हुए है जहां उनकी पार्टी सत्तारूढ़ है। कुछ हद तक ये बात सच भी है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। केंद्रीय जांच एजेंसियों ने मिले अधिकार का दुरुपयोग भी किया ओर भयादोहन कर भ्रष्ट्राचार को रोकने की आड़ में खुद भी भ्रष्ट्राचार किया। इन जांच एजेंसियों के अधिकारी भी लिप्त होने के कारण पकड़ाए लेकिन भीतरी स्तर पर इन एजेंसियों की साख भी गिरी। जिससे इस धारणा को भी बल मिला कि तोता हरे रंग का ही होता है।

2014 मे नरेंद्र मोदी ने देश में भ्रष्ट्राचार को खत्म करने (भगवान भी आ जाए तो असंभव है हो सकता है उनको ही ऐसे फर्जी मामले में रगड़ दिया जाए) का आव्हान 2014 में सत्ता में आने के बाद किया। प्रधान मंत्री को भ्रष्ट्राचार कम करने की बात कहनी थी। बहुतायत से आम जनता को विश्वास है कि भ्रष्ट्राचार के जरिए सरकारी काम में समय से पहले कराया जा सकता है। कार्यालय के चक्कर लगाने की असुविधा से बचा जा सकता है। जब धीरू भाई अंबानी सार्वजनिक रूप से ये बता सकते है कि हरेक का पैसा उसे मिलना चाहिए तो आम गरीब आदमी कैसे विश्वास न करे। देश के प्रधानमंत्री स्वीकार करे कि केंद्र से निकला एक रुपया आम आदमी तक पहुंचते पहुंचते 5 पैसे में बदल जाता है। तो जन प्रतिनिधि अगर 40 पैसे कमीशन खा रहा है तो क्या बुरा कर रहा है।

हर राज्य में जन प्रतिनिधियो के भ्रष्ट्राचार को पकड़ने के लिए लोक आयोग है। सरकारी अधिकारी कर्मचारी के भ्रष्ट्राचार को रोकने के लिए दो एजेंसियां है। आर्थिक अपराध अनुसंधान (EOW) और भ्रष्ट्राचार निरोधक केंद्र(ACB)। इन दोनो एजेंसियों के प्रति भी धारणा ये है कि इनका उपयोग और दुरुपयोग सत्ता पक्ष द्वारा किया जाता है। इस धारणा को इन एजेंसियों के सर्वोच्च पद पर आसीन अधिकारियों ने पुख्ता भी किया है। छत्तीसगढ़ राज्य इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।

2014 मे नरेंद्र मोदी ने देश में  भ्रष्ट्राचार के विरुद्ध शंखनाद किया तो छत्तीसगढ़ में सरकारी अधिकारी कर्मचारी के विरुद्ध सुनियोजित कार्यवाही  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिखाने के लिए शुरू की गई। चुनिंदा विभाग चयनित किए गए। अनुपातहीन संपत्ति का खुलासा किया गया। वाहवाही लूटी गई। एक निगम के खिलाफ प्रदेश स्तर पर छापेमारी की गई। असली सच सामने आने लगा तो कार्यवाही आधे अधूरे तरफ से रोका गया। एक आईएएस अफसर को रिश्वत के मामले में राज्य स्तर का अधिकारी मान पकड़ लिया गया तो केंद्र स्तर के चयनित दो अधिकारी संवर्ग आमने सामने हो गए। मामला सुलझा लिया गया। कोई गरीब कर्मचारी शहीद हो गया। भ्रष्ट्राचार को रोकने वाले कहां तक गिरे थे। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि स्वयं के आय को अनुपातहीन बनाने के लिए पीड़ितों से जमीन अपने रिश्तेदारों के नाम लिखाने के लिए समांतर पटवारी, नायब तहसीलदार, राजस्व अधिकारियों की नकली सील निर्माण किए हुए थे। ये मामला न्यायालय में है।

दूसरी सरकार आई तो उन्होंने भी इन जांच एजेंसियों से वही काम करवाया जो उनके मन के मुताबिक था। एक पूरे कार्यकाल में सरकारी कर्मचारी हरिश्चंद हो गए थे, अनुपातहीन संपत्ति  बनाना अधर्म हो गया था। रिश्वत न कोई लेता था न कोई देता था। कोयला में 25 रुपए टन और कस्टम मिलिंग में 20 रूपये क्विंटल, ट्रांसफर में पुरानी सरकार से पांच गुना राशि। संगठित भ्रष्ट्राचार का नमूना था।

एक बार फिर नई सरकार आ गई है। दोनों जांच एजेंसी हरकत में है। इस हरकत के कारण अधिकारी कर्मचारी थोड़े दहशत में है। भ्रष्ट्राचार का सबसे बडा गुण ये है कि जो इस मामले में फंसा वही भ्रष्ट माना जाता है बाकी हरिश्चंद्र होते है या शतुरमुर्ग की तरह रेत में मुंह डाले स्वयं को सुरक्षित मानते है। विष्णु देव साय के शासन में एसीबी और ईओडब्ल्यू के नए मुखिया आने के बाद कार्यवाही दिख रही है। प्रताड़ित लोगों को राहत मिल रही है। प्रश्न ये उठ रहा है कि इसके बावजूद भी ऊपर स्तर से हर विभाग में मांग क्यों आ रही है? क्या हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और है, ये बात सत्ता और संगठन में चर्चा का विषय है।

स्तंभकार-संजयदुबे

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