कला-साहित्य

PERSONALITY;ज्ञानपीठ पुरस्कार से पहले और बाद के विनोद कुमार शुक्ल

अवार्ड

अकस्मात ही छत्तीसगढ़ की राजधानी में सरगर्मी बढ़ी। कारण था विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने का। साहित्य का भारत रत्न दिए जाने का सम्मान  १९६५ से प्रारंभ हुआ । इसके ५९वें आयोजन में  बारहवें हिंदी भाषा के लेखक/कवि के रूप में छत्तीसगढ़ की धरा को  विनोद कुमार शुक्ल की लेखनी ने सम्मान दिलाया है। प्रश्न ये भी उठता है कि अविभाजित मध्यप्रदेश और नव राज्य के रूप में भारत के नक्शे में आने वाले राज्य की पचास साल में  शासन करने वाली सरकारों ने विनोद कुमार शुक्ल की लेखनी को समझने या सम्मानित करने की सुध नहीं ली।

हर राज्य में  हिंदी भाषा के विकास के लिए अनेक अकादमी का गठन किया जाता है।  विनोद कुमार शुक्ल कम से कम इतने लायक तो थे कि उन्हें ये सम्मान दिया जा सकता था। नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बनने से पहले  देश के नागरिक अलंकरण सम्मान जिसमें पद्म श्री से लेकर पद्म विभूषण स्तर सम्मान शामिल है, इन्हें देने के लिए राज्य की सरकारे अनुशंसा करती थी। मुख्यमंत्री ने अगर अनुशंसा कर देते तो केंद्र सरकार सम्मान एक साल में न दे दूसरे तीसरे साल दे ही  देती थी। छत्तीसगढ़ के अनेक विभूषित लोग इसी रास्ते से गुजर कर अपने नाम पट्टिका में पद्म श्री लिखे हुए है।

२६ जनवरी और १५ अगस्त को  आयोजित जिला स्तरीय परेड में इनकी सुध प्रशासन लेता भी है,(आमंत्रण पत्र भेज कर)। विनोद कुमार शुक्ल का नाम मोतीलाल वोरा से लेकर श्यामा चरण शुक्ल , अर्जुन सिंह, दिग्विजय सिंह, उमा भारती, अजीत जोगी, डा रमन सिंह, भूपेश बघेल और विष्णु देव साय ने केंद्र सरकार को कभी भी विनोद कुमार शुक्ल को नागरिक अलंकरण पुरस्कार देने के लिए अनुशंसा नहीं की।  इसका कारण साफ था कि विनोद कुमार शुक्ल के  चरित्र में राजनैतिक दलों के प्रमुखों की चाटुकारिता रही ही नहीं। इस कारण न तो मध्यप्रदेश में और न ही छत्तीसगढ़ के राज्य स्तरीय सम्मान के लायक समझा गया।
किसी लेखक की स्वीकार्यता के लिए राजनीति से जुड़े लोगों  को साहित्यिक समझ की आवश्यकता होती है। मुझे याद है छत्तीसगढ़ के राज्य निर्माण के बाद राज्य उत्सव मनाने की परंपरा शुरू हुई। विज्ञान महाविद्यालय के मैदान में तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी और विनोद कुमार शुक्ल की पुस्तके विमोचित हुई थी। राजनीति में चाटुकारिता का अपनी कीमत है, मजबूरी है। जो लोग अजीत जोगी की किताब खरीद रहे थे वे समर्थक थे और विनोद कुमार शुक्ल की गिनी चुनी किताब खरीदने वाले  ईमानदार पाठक थे।
एक सच्चा साहित्यकार नाम से ज्यादा काम का भूखा होता है। विनोद कुमार शुक्ल लेखन के भूखे थे, पुरस्कार और  पुरस्कार की घटिया राजनैतिक चक्कलस से दूर नौकर को कमीज पहनाते रहे। “जोक नदी का कथा प्राशन” का सृजन करते  रहे। कविता दर कविता कहानी लिखते रहे।
‘आदिवासी नाचते दिखते नहीं
नचाए जाते दिखाये जाते है
जो उनका घर है
उनमें वे रहते नहीं
वे दिखाने के घर है
उनका जो चूल्हा जल रहा है
यह उन्होंने नहीं जलाया
जलता हुआ दिखाने का है
जो कुछ दिखता है
वह दिखाने से दिखता है
और जो नहीं दिख रहा
वह नहीं देख सकने वाले
अंधे लोगों के लिए शहर में
जंगल की प्रदर्शनी लगी,
उपरोक्त कविता बताती है कि विनोद कुमार शुक्ल  का व्यक्तित्व कैसा था और क्या कारण था जिसके चलते वे स्वीकार्य नहीं थे, सत्ता के गलियारों में। उन्हें साहित्य का सर्वश्रेष्ठ सम्मान मिला उसके पहले कौन सा राजनेता उनकी सुध लेना बेहतर समझा था? किसी ने नहीं,  जिस राज्य में पद्म विभूषण से सम्मानित तीजन बाई को अपने स्वास्थ्य के लिए गुहार लगाना पड़ जाए उस राज्य में विनोद कुमार शुक्ल किस खेत के मूली है?
सम्मान मिलने के बाद अनेक राजनीतिज्ञों सहित नाम के भूखे लोगों में विनोद कुमार शुक्ल, जीवित हो उठे है।  उनके स्वास्थ्य की परवाह किए बगैर अपने सुविधा के अनुसार उनको बधाई देने वालों में सच्चे कितने प्रशंसक है ये देखने वाली बात है। जो नाम के भूखे है उनसे ये पूछा जाए कि विनोद कुमार शुक्ल ने नौकर की कमीज के अलावा जो लिखा है वो किसने पढ़ा है। कितने लोगों ने शुभ कामनाएं देने के बाद किसी पुस्तक की दुकान से विनोद कुमार शुक्ल की किताबें (माफ करे) किताब खरीद कर पढ़ी है।
बेहतर ये है कि विनोद कुमार शुक्ल के स्वास्थ्य को प्राथम्य माना जाए। वे धरोहर है,उम्र के अंतिम पड़ाव पर है। उनको बहुत कुछ लिखना है। जो उन्होंने लिखा है मेरा सम्मान उनके ही शब्दो में उन तक पहुंचे……
“एक बची सुबह में
एक बचा हुआ सूर्य निकला था
एक बचे पूर्व से
यह अच्छा हुआ कि लोग
रातों को सोना भूल गए
और जागना याद रहा।
कई रातों का सोना कई रातों से मै भूल गया था
और मुझे बहुत ही सुबहो का जागना याद रहा” 

स्तंभकार- संजयदुबे

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