कानून व्यवस्था

पूजा खेड़कर के बहाने………………

  कार्यपालिका, सरकार के नियम कानून को पालन करने वाली संवैधानिक  संस्थान है। सरकार की मदद करने के लिए केंद्र और राज्य में  प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री सहित दीगर मंत्रियों के लिए सचिव/संचालक पद  सहित जिला प्रमुख के रूप में कलेक्टर और जिला  पंचायत के सीईओ पद पर कार्य करने के लिए संघ लोक सेवा आयोग  प्रतिवर्ष परीक्षा आयोजित करता है। हर साल लगभग एक हजार के आसपास सफल अभ्यर्थी  आईएएस, आईपीएस , आईएफएस सहित अन्य अलाइड सर्विसेज के लिए चयनित होते है। सफल अभ्यर्थियों में बामुश्किल नौ से दस प्रतिशत अभ्यर्थी ही आईएएस बनते है।  ऐसे सफल अभ्यर्थी ही आईएएस हो पाते है। इन्हे देश का बटर कहा जाता है क्योंकि संघ लोक सेवा आयोग की चयन प्रक्रिया बहुत ही उत्कृष्ट श्रेणी की होती है। तीन स्तरीय परीक्षा में प्रारंभिक, मुख्य और इसके बाद इंटरव्यू में सफलता अत्यंत कठिन परिश्रम का परिणाम होता है।

 इन चयनित अभ्यर्थियों में से यदि किसी के साथ विवाद होता है तो ऐसी खबरे आग की तरह फैलती है। सामान्य तौर पर आम आदमियों की सरकारी सेवक के प्रति नजरिया बहुत ही  घृणित है। सरकारी सेवक  के प्रति इस नजरिए के दो पक्ष है। पहला कि केवल डेढ़ दो करोड़ परिवार से सरकारी सेवक चयनित होते है। देश में  पैतालीस करोड़ परिवार है ऐसे में जिनके परिवार से सरकारी सेवक नहीं है उनमें  इस बात की हीन भावना होती है कि उनके परिवार से कोई सरकारी सेवा में नहीं है। सरकारी सेवकों के आचरण से आम जनता को दिखता है कि सरकारी सेवकों के पास सरकारी वेतन के अलावा अन्य गलत माध्यम  है धन अर्जित करने का।  इस कारण जब भी  किसी भी स्तर का सरकारी कर्मचारी विवाद में पड़ता है, चटखारे लेकर कहने बताने वालों की फौज खड़ी हो जाती है।

 इन दिनों महाराष्ट्र राज्य की आईएएस पूजा खेड़कर विवाद में है। पुणे में पूजा खेडकर प्रोबेशन पीरियड में कार्यरत थी। वे संपन्न घर से ताल्लुकात रखती है। ऑडी कार देश में संपन्नता की निशानी है। शासन द्वारा  उनको जो कार सुविधा के लिए दी गई रही होगी वो  पूजा खेड़कर को प्रतिष्ठा  के अनुरूप नहीं लगी होगी अन्यथा हर जिले का प्रशासन अपने जिले के किसी भी आईएएस अधिकारी को चार पहिया वाहन उपलब्ध तो करा ही देता है, चाहे वह राज्य सेवा के किसी अधिकारी से छीन कर ही क्यों न दे दे। पूजा खेड़कर को पद से ज्यादा स्वयं की महत्ता की लालसा ने मुसीबत में डाला। किसी अन्य अधिकारी का चेंबर में कब्जा करना, शान शौकत की वस्तु के  साथ साथ सुरक्षा कर्मी की मांग करना, आदि आदि। इनसे आगे बढ़कर खुद को ऑडी कार में नीली लाल बत्ती लगाना, महाराष्ट्र शासन का स्टीकर लगा कर  मुसीबत में फंस गई। राज्य शासन ने कलेक्टर की अनुशंसा से हटा दिया तो बात बिगड़ने लगी।

पूजा खेड़कर पर चौतरफा आक्रमण हो चुका है। उनके चयन का आधार विकलांगता और पिछड़ा वर्ग में क्रीमी लेयर प्रमाण पत्र, संदेह के दायरे में है। पुणे में बना घर अतिक्रमित है नगर निगम तोड़ फोड़ कर चुका है। मां  किसान पर रिवाल्वर लहराने के मामले में  आ गई है। ऑडी कार को रोड नियमों का उल्लंघन करने के मामले में जब्त कर लिया गया है। पूजा खेड़कर को ट्रेनिंग प्रोग्राम से अलग कर मसूरी वापस बुलाना भविष्य का अच्छा अंजाम की तरफ इशारा नही कर रहा है।

मुद्दे की बात पूजा खेड़कर के मामले में एक बात जाहिर है कि उन्होंने पुणे के कलेक्टर से पंगा लिया, उनके ही खिलाफ शोषण की रिपोर्ट दर्ज करा दिया। इतनी बातों के चलते राज्य प्रशासन में किसी न किसी “सिंघम”का जन्म होना ही था। देश के एक जिले में एक अधीनस्थ अधिकारी नियम के विपरीत जाता है तो पूरा राज्य प्रशासन कमर कस लेता है सुधारवादी आंदोलन चलाने के लिए! अच्छी बात है,  व्यवस्था बिगाड़ने वाले के विरुद्ध कार्यवाही होना ही चाहिए मगर जब यही बात व्यवस्थापिका से जुड़े नेताओं और उनके समर्थकों पर आती है तो  देश, राज्य और जिला प्रशासन को सांप क्यों सूंघ जाता है?

 हमारे देश में सत्तारूढ़ सरकार की पार्टी के निर्वाचित जन प्रतिनिधियो से अधिक नियमो की ऐसी तैसी अनिर्वाचित जन प्रतिनिधि और कार्यकर्ताओं के द्वारा की जाती है। हर राज्य के  सत्तारूढ़ पार्टी के पराजित सांसद, विधायक, महापौर,  निकाय अध्यक्ष, सरपंच सहित पार्षद,पंच  पद के व्यक्ति सहित संगठन से जुड़े पद के अधिकारी “वीआईपी  सिंड्रोम” से ग्रस्त है।

 सबसे पहले जीते हुए जन प्रतिनिधि अपने पद का नेम प्लेट लगाते है।  ये अधिकार केवल शासन द्वारा उन्हें दिए गए वाहन के लिए है। इनके घर में  जितने भी  निजी वाहन  है उनमें भी पद का नेम प्लेट लग जाता है। अब किस ट्रेफिक हवलदार की हैसियत है कि वह बता सके कि माई बाप आप नियम तोड़ रहे है। बता दें तो कुछ दिन बाद ऐसी जगह पोस्टिंग कर दी जाएगी कि बंदा वाहन देखने को तरस जायेगा।

निजी वाहनों के नंबर प्लेट पर पार्टी के झंडे का रंग लगाना तो  सामान्य बात है। जीते तो जीते पराजित योद्धा भी “पूर्व”को छोटा और  मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक, महापौर, अध्यक्ष लिख कर घूमने में गुरेज नहीं करते। छोटे अक्षरों में लिखा “पूर्व” शर्मिंदगी का परिचायक है ,ये समझ में नहीं आता है। यही हाल निर्वाचन आयोग में पंजीकृत मान्यता प्राप्त  राष्ट्रीय, राज्य स्तरीय और अधिकृत दलों का है। इनके प्रकोष्ठ की संख्या इतनी अधिक है कि समझ में नहीं आता है कि इतनी रेवड़ियां लाते कहां से है।  ये पदाधिकारी भी  “वीआईपी सिंड्रोम,” के बड़े मारे हुए है।  बड़े बड़े नेम प्लेट इनके ही दिखते है। लाल नीली बत्ती, सायरन  का जिस तरह से अवैध दुरुपयोग हो रहा है उसे न्यायालय ने तो अवैध घोषित कर दिया है। अब क्या सोशल मीडिया  ही ट्रेंड करे ।

स्तंभकार-संजयदुबे

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