कला-साहित्य

TRADITION; होली दहन के बाद धधकते अंगारों पर नंगे पैर चलने की प्रथा समाप्त हो रही

होली

रायपुर, छत्‍तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों में होलिका दहन के बाद जलते अंगारों में चलने की परंपरा सदियों पुरानी है। गांव में सुख-शांति स्थापित हो और सभी के दुख-दर्द दूर हो इसलिए गांव वाले होलीका दहन के बाद धधकते अंगारों पर नंगे पैर चलने की परंपरा है ,और देवी कृपा मानते हुए उनके पैरों में जलने के कोई भी निशान भी नहीं होता है। उसके बाद दूसरे दिन उसी राख से होली खेलते है। ये परंपरा पिछले कई सालों से निभाई जा रही है। साथ ही होली के तीन-चार दिन पहले से ही वहां के युवा और बुजुर्ग पारंपरिक लोकनृत्य करते हैं। खासकर छत्‍तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में इसका चलन आज भी यदा-कदा जारी है।

छत्‍तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों में होलिका दहन की तैयारी हफ्ते भर पहले से की जाती है। युवा- बच्चे सूखी लकडियां इकट्ठा करते है। 1960 दशक में महासमुंद जिले के सराईपतेरा गांव में होली बेहद धूमधाम से मनाई जाती थी। युवक घर-घर घूमकर लकडियां मांगकर इकट्ठा करते थे और होलिकादहन स्थल पर ले जाते थे। यहां पूजा-विधान के बाद होली जलाई जाती थी।

होलिका दहन के बाद बच्चे, जवान, बुजुर्ग सभी दहकते अंगारों में चलते थे। होली की राख से ही घर में होली की पूजा की जाती थी। इसके बाद लोग रंग गुलाल खेलते थे। बच्चे गुलाल की जगह कभी कभी धूल भी उडाते थे। लेकिन कोई बुरा नहीं मानता था। पूरे अंचल में होली मनाने की कुछ ऐसी ही परंपरा थी।अब यह परंपरा समाप्त होती जा रही है।

धधकते अंगारों पर चलने की मान्यता के बारे में ग्रामीण स्पष्ट कुछ भी नहीं जानकारी देते हैं। बुजुर्गों का कहना है कि परंपरा निभाने से गांव में प्राकृतिक आपदा नहीं आती है। सुख शांति समृद्धि के लिए वर्षों पुरानी प्रथा निभाई जाती है। ग्रामीणों का कहना है कि अंगारों पर चलने के बाद एक दूसरे को होली की बधाई दी जाती है।

सदियों पुरानी है परंपरा

बस्तर के सुकमा जिला मुख्यालय से करीब 50 किमी. दूर स्थित पेंदलनार गांव जहां आदिवासी और यादव समाज के करीब 800 लोग निवासरत है। कुछ साल पहले गांव में नक्सलियों का दखल था लेकिन वर्तमान में गांव तक पक्की सड़क बन गई है। ये गांव अनोखी होली मनाने के नाम से प्रसिद्ध है यहां आज भी कई साल पुरानी परंपराओं को निभाया जा रहा है।

गांव के युवा रमेश यादव ने बताया कि होली से ठीक तीन-चार दिन पहले से शाम होते ही युवा और बुजुर्ग घेर (डांडिया) आपस में खेलते हैं।इसके पीछे बुजुर्गो का कहना है कि गांव के युवा और वरिष्ठजनों के बीच आपस में अच्छा तालमेल हो और नाराजगी दूर करने का मकसद है।उसके बाद होली के दिन यहां दहन के बाद गांव के बच्चों से लेकर बुजुर्ग लोग धधकती आग पर चलते हैं। दूसरे दिन राख की होली

पुरानी मान्यताओं के मुताबिक होलिका दहन के बाद दूसरे दिन राख के ढेर से लोग होली खेलते हैं।ऐसा करने के पीछे भी मान्यताएं है कि होलिका दहन के बाद वो राख पवित्र हो जाती है।पूरे शरीर में लगाने से चर्म रोग नहीं होता है। और भी इसके पीछे मान्यताऐं हैं। हालांकि वर्तमान में गांव के युवा होली के दिन रंग-गुलाल जरूर लाते हैं लेकिन पंरपराओं को भी निभाया जा रहा है।

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